Excerpts from Jeevanadarsh Evam Atmaanubhuti:
Shri Paramahans Maharaj Ji was born in Ramkola village of Deoria District of Uttar Pradesh in an ordinary family. His mothers name was Fulmani Devi and fathers name was Shri Jagrup Sharma Ji. When an eminent astrologer saw him as a child he asked, How did you beget such remarkable child? He would either grow up as a king or an accomplished guru ! The mother was stunned. She moved chilly and salt over the head of the child as a talismanic ritual to protect the child from an effect of an evil eye.
At the age of five he was admitted in the school, but on the third day his teacher punished him mildly. The child cried out in anguish. His mother said, Hell with the school! My son wouldn’t study henceforth. This brought an abrupt end to his education.
All around the locality, wrestling was a mania. There were many a wrestling places (Akhada) in the village. Gradually he was recognized as an accomplished wrestler. He never was defeated in wrestling until the age of twenty-eight years. He had a great desire to wrestle with the famous wrestler of his time, Gamma.
Suddenly he received three divine directions, as if from the skies. The first one was to provide food for a sage. The second was received when he was invited to head towards an ulterior companionship; he received divine direction, You are heading towards committing sin. You would fall in the hell. He was stopped midway in his strides and returned. The third time he heard a divine voice from skies Your Guru is in this temple. He entered a dilapidated temple but finding nobody in the darkness, he was terribly upset and returned. He was perplexed with the thought as to who was talking in his head. Who was after him? At that time he heard someone coughing inside the temple. In fact, he was his Guru. For three days he dedicated himself to his service and tending. He learnt the process of meditation in such a short time. He learnt that, whatever he had been considering as worship was not worship in true sense. As soon as realization dawned on him about the true nature of spirituality, he dedicated himself to meditation with peace and solitude. After four months, spirituality was kindled. Having learn everything, hearing everything and understanding everything a man remains where he had began; because, spiritual process is the path of attainment. After four months of efforts, spiritual meditation was awakened, the soul was placed in the drivers position, the Supreme Divinity started guiding, meditation was strengthened and rumination was stimulated.
I asked the Guru, lordship, why were you guided by the divine voice? He replied, Even I had the similar doubts. The God clarified, I have been a saint for the last seven ages. However, in the initial four lives, I have been wandering aimlessly pretending to be a saint. Nevertheless, I had restrain over me even in those days. I have been a good saint for the last three lives, the way a saint should be. Although, I have been in spiritual realm, the soul was driven by the Supreme Divinity, and I have been usually worshipping, I had two unfulfilled desires. I was intrigued to learn what joy a married life had and what kind of pleasure was derived by smoking marijuana, like other saints. Besides, I was egoistic about my physical prowess. Because of that, I had to take rebirth. Otherwise, I would have been freed from the cycle of birth and death. The God arranged for him to get married for a short while and brought me out of reverie indicating at the Guru and the true path of spirituality. The God made me a hermit; I have not become one on my own accord. I had never imagined of becoming a hermit. I never used to visit a temple, never listened to any religious discourse; but the God compelled me to follow this path through the Divine voice.
जीवनदर्श एवं आत्मानुभूति से अंश:
श्री परमहंस महाराज जी का जन्म उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के रामकोला गाँव में एक साधारण परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम फुलमनी देवी और पिता का नाम श्री जगरूप शर्मा जी था। जब एक प्रख्यात ज्योतिषी ने उन्हें बालक के रूप में देखा तो पूछा, तुम्हें इतना विलक्षण बालक कैसे उत्पन्न हुआ? वह बड़ा होकर या तो राजा बनेगा या एक तत्वदर्शी गुरु! माँ स्तब्ध रह गयी। उसने बच्चे को बुरी नजर के प्रभाव से बचाने के लिए प्रचलित प्रथा के अनुसार उसके सिर पर मिर्च और नमक घुमाया।
पांच वर्ष की उम्र में उन्हें स्कूल में भर्ती कराया गया, लेकिन तीसरे दिन उनके शिक्षक ने उन्हें हल्की सजा दी। बच्चा दर्द से चिल्लाने लगा। उसकी माँ ने कहा, मेरा बेटा अब से पढ़ाई नहीं करेगा। इससे उनकी शिक्षा अचानक समाप्त हो गई।
पूरे मोहल्ले में कुश्ती का माहौल छाया हुआ था। गाँव में कई कुश्ती स्थल (अखाड़े) थे। धीरे-धीरे उनकी पहचान एक कुशल पहलवान के रूप में होने लगी। अट्ठाईस वर्ष की आयु तक वे कुश्ती में कभी नहीं हारे। उन्हें अपने समय के प्रसिद्ध पहलवान गामा से कुश्ती लड़ने की बड़ी इच्छा थी।
अचानक उन्हें तीन दिव्य आदेश प्राप्त हुए, मानो आकाश से। सबसे पहले एक ऋषि को भोजन उपलब्ध कराना था। दूसरा तब प्राप्त हुआ जब उन्हें एक नवविवाहिता तरुणीने आमंत्रित किया। उन्हें दिव्य निर्देश मिला की, तुम पाप करने की ओर बढ़ रहे हो। तुम नरक में जाओगे। उनके कदमों को बीच में ही रोक दिया गया और वे वापस लौट आये। तीसरी बार उन्होंने आकाश से एक दिव्य आवाज सुनी की, आपके गुरु इस मंदिर में हैं। वे एक जीर्ण-शीर्ण मंदिर में दाखिल हुए लेकिन अंधेरे में किसी को न पाकर वे बहुत परेशान हुए और वापस लौट आए। वे यह सोच कर परेशान थे कि उनके दिमाग में कौन बात कर रहा है। उनके पीछे कौन था? तभी उन्हें मंदिर के अंदर किसी के खांसने की आवाज सुनाई दी। वास्तव में वे उनके गुरु थे। तीन दिनों तक उन्होंने खुद को उनकी सेवा और देखभाल के लिए समर्पित कर दिया। इतने कम समय में ही उन्होंने ध्यान की प्रक्रिया सीख ली। उन्हें पता चला कि, जिसे वे पूजा समझ रहा थे, वह सच्चे अर्थों में पूजा नहीं थी। जैसे ही उन्हें आध्यात्मिकता के वास्तविक स्वरूप का एहसास हुआ, उन्होंने खुद को शांति और एकांत के साथ ध्यान के लिए समर्पित कर दिया। चार महीने बाद हृदय में स्वरुप पकड में आया। सब कुछ सीखने, सब कुछ सुनने और सब कुछ समझने के बाद मनुष्य वहीं रहता है जहाँ से उसने शुरू किया था; क्योंकि, आध्यात्मिक प्रक्रिया ही प्राप्ति का मार्ग है। चार महीने के प्रयासों के बाद, आध्यात्मिक ध्यान जागृत हुआ, आत्मा को चालक की स्थिति में रखा गया, सर्वोच्च दिव्यता ने मार्गदर्शन करना शुरू कर दिया, ध्यान को मजबूत किया और चिंतन को प्रेरित किया।
मैंने गुरु से पूछा, हे प्रभु, आपको दिव्य वाणी द्वारा निर्देशित क्यों किया गया? उन्होंने उत्तर दिया, मुझे भी ऐसी ही शंका थी। भगवान ने स्पष्ट किया, मैं सात जन्मों से साधु हूँ। हालाँकि, शुरू के चार जन्मों में मैं साधु बनने का ढोंग करता था। फिर भी उन दिनों मुझ में संयम था। मैं पिछले तीन जन्मों से एक अच्छा संत रहा हूं, जैसा एक संत को होना चाहिए। हालाँकि, मैं आध्यात्मिक क्षेत्र में रहा हूँ, आत्मा सर्वोच्च दिव्यता द्वारा संचालित होती थी, और मैं हमेशा साधनरत रहता था , फिर भी मन में दो अधूरी इच्छाएँ थीं। मैं यह जानने के लिए उत्सुक था कि, विवाहित जीवन में कितना आनंद होता है और अन्य संत जो गांजा पिते हैं उस में किस प्रकार का आनंद मिलता है। इसके अलावा, मैं अपनी शारीरिक शक्ति को लेकर अहंकारी था। उसके कारण मुझे पुनर्जन्म लेना पड़ा।’ अन्यथा, मैं जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त हो गया होता। भगवान ने कुछ समय के लिए मेरे शादी की व्यवस्था की और मुझे गुरु और आध्यात्मिकता के सच्चे मार्ग की ओर इशारा करते हुए सांसारिक बंधनों से बाहर निकाला। भगवान ने मुझे संन्यासी बना दिया; मैं अपनी मर्जी से ऐसा नहीं बना हूं। मैंने सन्यासी बनने की कभी कल्पना भी नहीं की थी। मैं कभी मंदिर नहीं गया, कभी कोई धार्मिक प्रवचन नहीं सुना; लेकिन भगवान ने मुझे दिव्य वाणी के माध्यम से इस मार्ग पर चलने के लिए मजबूर किया।