Swami Shri Adgadanand Ji Maharaj came to the recluse of the worldly saint Paramanand Ji at the age of 23 years in November 1955 searching for the truth. The hermitage of Parmanand Ji was at Chitrakoot Anusuiya, Satna, Madhya Pradesh (India) amidst the dense forests infested with wild animals. Living in such inhabitable forest in the absence of any facility, this rightly reflects that he was a great sage. Reverend Paramhans Ji received premonitions of his arrival many years ago. The day he reached the ashram, Paramhans Ji received divine presage. He had declared to his disciples, A young man who is ardently seeking to go beyond the periodicity of life must be coming at any moment now. Moment he cast his eye upon him, Paramahans Ji declared, Here he is! Whenever a pupil comes in contact with a great sage, immediately it is beyond his senses to fathom the greatness of the sage. He was also intimated by the divine soul and chaste Brahmin, The sages who have been incarnated in this world, your Guru has all those qualities and he is such sage. With the strengthening of his faith in the Guru his spiritual pursuit also speeded up. Guided under the angelic guidance of the Guru he set out on the path of spiritual freedom. The aim was established. Maharaj Ji, although was not interested in writing, following the godly directions he has contributed invaluable treatises through speech and in text for the social good. The first such publication is Jeevanadarsh and Atmaanubhooti is an account of the ideal life and the spiritual pursuit of his Guru Paramhans Paramanand Ji. It is a collection of his life sketch and many astonishing incidents. Many of the people are even alive today, who have seen such unique personality and for that matter they consider themselves very lucky. Secrets of the techniques of spiritual pursuits, which have been revealed to him by the Guru, have also been included in this book. It is one of the most appraised and invaluable books in todays world, on the subject of spiritualism, which could only be perceived by the student on the path of attainment of spiritualism. The divine direction has become instrumental in the creation of this book. Since the thought, promulgated by the Yogeshwar Lord Krishna have been expressed in their simple rudimentary form, it is called Yatharth Geeta. Only a contemporary saint can find true solution for the social good, answers to their questions and solve their problems. The dead do not rule from the graves. To have reverence for the departed and take guidance from them to certain extent may be alright, however, for the contemporary problems, we need to take guidance from some great living saint only. Swami Ji has never advanced claim that he has attained divinity. He merely presents to the society, what he has been able to receive in his quest of Truth. Swami Ji has spent fifteen years of his life in deep meditation in proximity of his Guru. There are many present who have seen him forgoing food, water, sleep, etc. for months together. Since the Nirvana of Gurudev in 1969, for the last thirty years, wherever Swami Ji stayed, several cloistered holy people, thousands of devotees from the regions and plenty of grief-stricken people had a unique opportunity to regularly interact with him and seek his blessings. Making necessary uninterrupted, arrangements for the people travelling from very long distance of free service of snacks, food and rest without even seeking help from others is certainly a miraculous feat.
स्वामी श्री अड़गड़ानंद जी महाराज सत्य की खोज में नवंबर 1955 में 23 वर्ष की आयु में वैरागी संत परमानंद जी के पास आये। परमानंद जी का आश्रम चित्रकूट के अनुसुइया, सतना, मध्य प्रदेश (भारत) में जंगली जानवरों से भरे घने जंगलों के बीच था। ऐसे निर्जन वन में किसी भी सुविधा के अभाव में रहना उनके एक सिद्ध ऋषि होने को दर्शाता है।
श्रद्धेय परमहंस जी को स्वामी अड़गड़ानंद जी महाराज के आगमन का पूर्वाभास कई वर्ष पहले ही मिल गया था। जिस दिन वे आश्रम पहुंचे, परमहंस जी को दिव्य मार्गदर्शन प्राप्त हुआ। उन्होंने अपने शिष्यों से कहा, “एक युवा व्यक्ति जो जीवन की नश्वरता से परे जाने का उत्साहपूर्वक प्रयास कर रहा है, उसे अब किसी भी क्षण आना चाहिए।” जैसे ही उनकी नज़र उस पर पड़ी, परमहंस जी ने कहा, “यही है वो!”
जब भी कोई आध्यात्मिक साधक किसी महान संत के संपर्क में आता है, तो उसको संत की महानता का एहसास तुरंत नहीं होता है। उन्हें एक दिव्य आत्मा और एक पवित्र ब्राह्मण सपनें में आया जिसने उनसे कहा, “आपके गुरु में वे सभी गुण हैं जो इस दुनिया में अवतरित महानतम संतों में पाए जाते हैं और वह ऐसे ऋषि हैं।” इससे गुरु के प्रति उनकी आस्था मजबूत होने के साथ ही उनकी आध्यात्मिक खोज भी तेज हो गई। गुरु के निर्देशन के अनुसार वह आध्यात्मिक के मार्ग पर निकल पड़े। लक्ष्य पूरा हो गया।
महाराज जी को लेखन में कोई रुचि नहीं थी, लेकिन ईश्वरीय निर्देशों का पालन करते हुए उन्होंने प्रवचनों और लिखित शब्दों के माध्यम से समाज की भलाई के लिए अमूल्य ग्रंथ दिए। इस तरह का पहला प्रकाशन ‘जीवनादर्श एवं आत्मानुभूति’ है – जो उनके दिव्य गुरु, परमहंस परमानंद जी के आदर्श जीवन और आध्यात्मिक प्राप्ति विषयक ग्रंथ है। यह उनका जीवन रेखाचित्र और अनेक आश्चर्यजनक घटनाओं का संकलन भी है। जिन लोगों ने इस अद्वितीय व्यक्तित्व को देखा है और इस कारण वे स्वयं को बहुत भाग्यशाली मानते हैं, उनमें से बहुत से लोग आज भी जीवित हैं। गुरु द्वारा उन्हें बताई गई आत्मदर्शन की विधी को भी इस पुस्तक में शामिल किया गया है। यह हमारे समय की अध्यात्म विषय पर सर्वाधिक प्रशंसित एवं अमूल्य पुस्तक है और कोई भी आध्यात्मिक विद्यार्थी एवं विचारक इस पुस्तक का अध्ययन करके स्वयं को अत्यंत सम्मानित मानेगा।
अप्रैल 1998 में अखिल भारतीय स्तर पर हरिद्वार में आयोजित महाकुंभ मेले में गीता की अद्वितीय टीका ‘यथार्थ गीता’ को ‘भारत गौरव’ से सम्मानित किया गया। इस ग्रंथ के निर्माण में ईश्वरीय निर्देशन का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण के विचारों को यथावत् व्यक्त किये जाने के कारण इसे ‘यथार्थ गीता’ कहा जाता है।
भगवान कृष्ण के पांच हजार से अधिक वर्षों बाद ‘यथार्थ गीता’ की यह दिव्य व्याख्या मानव जाति के लिए समानता और मुक्ति का एक पवित्र संदेश बन गई है। गीता में बताए गए सिद्धांतों का पालन करके कोई भी व्यक्ति अपने भ्रम से छुटकारा पा सकता है और दिव्य सत्य का एहसास कर सकता है।
महाराज जी ने अपनी कृति ‘शंका समाधान’ के माध्यम से रूढ़िवादी समाज के सभी प्रश्नों का समाधान किया है। प्रश्नों की व्यापकता और उनकी वैज्ञानिक व्याख्याएँ आपको सच्चाई के द्वार तक आसानी से पहुँचने में मदद करती हैं। आध्यात्मिक गतिविधियों की शुरुआत के बाद, दिव्य निर्देश और संकेत, अंगों के कंपन के माध्यम से स्पष्ट हो जाते हैं। इसका उल्लेख ‘अंग क्यों फडकते हैं?’ इस पुस्तक में किया गया है।
दुनिया के महान संतों के विचारों में एकमतता को दर्शाते हुए उन्होंने महान संत कबीर के छंदों, उनके आध्यात्मिक ज्ञान को एक ऑडियो कैसेट ‘अमृतवाणी’ के माध्यम से प्रकाशित किया है। कोई भी महान संत अपने जीवनकाल के दौरान अपनी आध्यात्मिक खोज के अनुभवों को लिखकर प्रकाशित नहीं कर पाया है। अपने बेचैन स्वभाव, प्रकाशन की कठिनाइयों और सामाजिक एवं प्रशासनिक शत्रुता के कारण वे पहले अपना काम लिखने और प्रकाशित कराने में सक्षम नहीं थे। सत्य की रक्षा के लिए उन्होंने जो उप-सिद्धांत बनाए, वे लिखने के बाद समाज के लिए सुरक्षात्मक सिद्धांत बन गए। स्वामी श्री अड़गड़ानंद जी महाराज एक प्रसिद्ध संत हैं जिन्हें अपनी खोजों को शब्दों में पिरोने का अवसर मिला है जिसे पढके आप संपूर्ण सत्य का अनुभव कर सकेंगे।
समकालीन संत ही सामाजिक भलाई के लिए, समाज के प्रश्नों और समस्याओं का सच्चा समाधान ढूंढ सकता है। गुजरे हुए लोग शासन नहीं कर सकते। दिवंगतों के प्रति श्रद्धा रखते हुए, उनसे मार्गदर्शन कुछ हद तक स्वीकार्य है, और काफी हद तक स्वाभाविक भी हो सकता है; हालाँकि सामयिक समस्याओं के लिए किसी महान संत से ही मार्गदर्शन लें।
स्वामी जी ने कभी भी यह दावा नहीं किया कि उन्हें देवत्व प्राप्त हो गया है। परम सत्य की खोज में जो भी अमूल्य रत्न उन्होंने प्राप्त किए , उसे समाज के सामने प्रस्तुत किया है।
स्वामी जी ने अपने जीवन के पंद्रह वर्ष अपने गुरु के सान्निध्य में गहन ध्यान में बिताए। ऐसे कई लोग उपस्थित हैं जिन्होंने उन्हें कई महीनों तक भोजन, पानी, नींद आदि का त्याग करते देखा है।
1969 में गुरुदेव के निर्वाण के बाद से, पिछले तीस वर्षों से, जहां भी स्वामी जी रहे, कई श्रद्धालु लोगों को, सभी क्षेत्रों के हजारों भक्तों और बहुत से दुःखी लोगों को नियमित रूप से उनके साथ बातचीत करने और उनसे आशीर्वाद लेने का अवसर मिला। बहुत लंबी दूरी से यात्रा करने वाले लोगों के लिए लगातार आवश्यक व्यवस्था करना, नाश्ता, भोजन और आराम की मुफ्त सेवा प्रदान करना, दूसरों से मदद मांगे बिना, निश्चित रूप से यह एक अद्भुत उपलब्धि है।