इस कृति में परमहंस महाराज, योग-योगेश्वर, ब्रह्मलीन स्वामी श्री परमानन्द जी का आदर्श जीवन, आश्चर्यजनक घटनाएँ, आत्मानुभूति के चरमोत्कर्ष पर आसीन कराने वाली उनकी अमर-वाणी, बारहमासी, सदुपदेशों की झलकियाँ, लोकोत्तर शक्तियाँ एवं विद्या का संकलन है। जिसके माध्यम से जीवन पथ पर चलने वाले भाविकों का पथ-प्रदर्शन होता है एवं इसको हृदयंगम करके साधक सर्वोत्कृष्ट लक्ष्य की ऊँचाइयों को छू सकता है। साधकों के लिए यह बहुत उपयोगी ग्रन्थ है।
इस कृति में अनेक प्रश्नों का समाधान किया गया है जो सामाजिक बिखराव के उन्मूलन तथा धार्मिक भ्रान्तियों के निवारण में सहायक है। इसमें भजन किसका करे, कर्मकाण्ड यज्ञ (हवन), ब्रह्मचर्य, गायत्री, युग धर्म, अहिंसा, पाप और पुण्य, सनातन धर्म, वर्ण व्यवस्था, विप्र, आर्य, गोरक्षा, सती, अवतार और दान इत्यादि की स्पष्ट व्याख्या दी गई है।
पूज्य स्वामीजी द्वारा श्रीमद्भगवद्गीता के भाष्य ‘यथार्थ गीता’ का विश्व जनमानस में समादर की भावना देखकर भक्तों और साधकों ने निवेदन किया कि पातञ्जल योगदर्शन पर भी पूज्यश्री कुछ कहने की कृपा करें क्योंकि योग स्वानुभूति है जिसे मात्र भौतिक स्तर पर समझा नहीं जा सकता | पूज्य – चरण एक महापुरुष हैं, योग के स्तर से स्वयं गुजरें हैं | भक्तों के आग्रह पर महाराजजी ने कृपा कर जो प्रवचन दिये, प्रस्तुत कृति उसी का संकलन है |
योगदर्शन की इस टीका से, योग क्या है ? इतना तो समझ में आ सकता है किन्तु योग की स्थितियाँ साधना में प्रवृत होने के पश्चात् ही समझ में आती हैं | तप, स्वाध्याय, ईश्वर – प्रणिधान और ओम् के जप से आरम्भ हो जाती हैं जिससे अविधादि क्लेशों के क्षीण होने पर द्रष्टा आत्मा जागृत होकर कल्याणकारी दृश्य प्रसारित करने लगता है | उसी के आलोक में चलकर समझा जा सकता है कि महर्षि पतञ्जलिकृत योगसूत्रों का अभिप्राय क्या है ? योग प्रत्यक्ष दर्शन है, यह लिखने या कहने से नहीं आता | क्रियात्मक चलकर ही साधक समझ पाता है कि जो कुछ महर्षि ने लिखा है उसका वास्तविक आशय क्या है |
विश्व के प्रत्येक समाज और कबीले में नदी-पहाड़, गाय- पीपल, अनेकानेक देवी-देवताओं की पूजा से लेकर भूत-प्रेत और शैतान भगाने के अनुष्ठानों का बाहुल्य हो चला है। हर जाति और कबीले के अलग-अलग देवता निर्धारित हैं। जन्मते ही लोगों की श्रद्धा अपने-अपने देवी-देवताओं में चली गयी; भगवान की पूजा तक लोग पहुँच ही नहीं पा रहे हैं। यह एक परमात्मा से श्रद्धा हटाने का षड्यन्त्र जैसा लगा। ऐसी परिस्थिति में यह बताना आवश्यक हो गया कि भजन किसका करें? देवता क्या हैं? भूत क्या होता है और पूजा हम किसकी करें? प्रस्तुत पुस्तिका में इन भ्रान्तियों का निवारण करते हुए स्पष्ट किया कि धर्म क्या है? इष्ट कौन है? भजन किसका करें और कैसे करें?
इस पुस्तक में वर्ण, मूर्तिपूजा, ध्यान, हठ, चक्र-भेदन और योग, क्या हिन्दू - धर्म किसी जीवन - शैली का नाम है, हिन्दुत्व जैसे विषयों को स्पष्ट कर भ्रमित समाज का मार्गदर्शन किया गया है ।
यह पुस्तिका बालक के निर्मल मन में एक परमात्मा के प्रति पूर्ण आकर्षण पैदा कर समाज एवं साधना के क्षेत्र में सहज प्रवेश के लिए उपयोगी है। इसमें समर्पण का पाठ्यक्रम अंकित है जिससे बच्चों में धर्म-सन्देश का बीजारोपण, संस्कार पड़ेंगे। वे इस राह पर चलेंगे और अपने ही भगवत्-स्वरूप को प्राप्त कर लेंगे।
यह पुस्तिका बालक के निर्मल मन में एक परमात्मा के प्रति पूर्ण आकर्षण पैदा कर समाज एवं साधना के क्षेत्र में सहज प्रवेश के लिए उपयोगी है। इसमें समर्पण का पाठ्यक्रम अंकित है जिससे बच्चों में धर्म-सन्देश का बीजारोपण, संस्कार पड़ेंगे। वे इस राह पर चलेंगे और अपने ही भगवत्-स्वरूप को प्राप्त कर लेंगे।
दिनांक २० सितम्बर से ३ नवम्बर २०१० तक की अवधि में फरीदाबाद, हिमाचल प्रदेश, नैनीताल एवं नेपाल के समीपवर्ती पर्वतीय क्षेत्रों के भ्रमण के समय नवयुवकों ने भजन एवं अध्यात्म के औचित्य की जिज्ञासाएँ महाराजश्री से कीं।
इस पुस्तिका में नवयुवकों के अनेक प्रश्नों का संक्षेप में समाधान करते हुए भजन की अनिवार्यता पर प्रकाश डाला गया है। यदि एक परमात्मा में मानसिक स्तर से लगते बन गया तो उन प्रभु के संरक्षण में साधना चलती रहेगी, वाह्य कार्यों में भी मदद मिलेगी और आवागमन से मुक्ति तो मिलना ही है क्योंकि ईश्वर-पथ में आरम्भ का नाश नहीं होता।
परमात्मा सभी स्थानों से बोल सकते हैं– पेड़ से, पत्थर से, जल एवं थल से, आकाश से, पशु-पक्षी से, नदी तथा पहाड़ से; जड़-चेतन इत्यादि किसी भी माध्यम से निर्देश दे सकते हैं। वे कर्तुं-अकर्तुं अन्यथा कर्तुं समर्थ हैं। सर्वत्र सार्वभौम उनकी छटा है। श्रवण-नयन-मन-गोचर समग्र सृष्टि उन्हीं का यन्त्र-तन्तु है। आर्त अनुरागी भक्तों के लिए जब वह नयनाभिराम प्रेरक बन जाते हैं, तब सब स्थानों से अपना कार्य सम्पादित करते हैं।
इस पुस्तक में मानव शरीर के विभिन्न हिस्सों में होने वाले स्पन्दनों का कारण और उसके संकेतों का विश्लेषण किया गया है जो कि साधना में काफी सहायक है।
जन्म से ही नाना प्रकार के सम्बन्धों में भ्रम हो जाता है कि मैं कौन हूँ? यह जिज्ञासा यौगिक है। ‘वासांसि जीर्णानि...’ – शरीर एक वस्त्र है। यह शरीर छूटा, दूसरा मिला। तामस गुण के कार्यकाल में मृत्यु को प्राप्त हुआ पुरुष पशु, कीट-पतंग इत्यादि अधम योनि प्राप्त करता है। राजसी गुण के कार्यकाल में वह मनुष्य तन पाता है। सात्त्विक गुण के कार्यकाल में देव इत्यादि उन्नत योनि पाता है– हर हालत में योनि पाता है। अत: यह प्रश्न ज्यों-का-त्यों है कि मैं कौन हूँ? वास्तव में जब द्रष्टा यह आत्मा अपने स्वरूप में स्थिर हो जाता है तो वही आपका वास्तविक स्वरूप है।
श्री परमहंस आश्रम शक्त्तेषगढ़, चुनार, मिर्जापुर (उत्तर प्रदेश) में पधारे हुए कतिपय भक्तों ने गीता से सन्दर्भित प्रश्नों की एक सूची महाराजश्री के समक्ष मई २००५ में प्रस्तुत की, जिसका समाधान पूज्य महाराजश्री के श्रीमुख से प्रस्तुत है।
इस पुस्तिका में सामाजिक, आध्यात्मिक एवं धार्मिक कैसे भी प्रश्न हों, उनका गीता के आलोक में समाधान किया गया है।
पुनर्जन्म – बौद्धिक स्तर पर यह एक उलझा हुआ प्रश्न है। मनुष्य जन्मा, जीवन-यापन किया; शरीर छूटा, चला भी गया; कुछ समझ ही नहीं पाया कि पुनर्जन्म है या नहीं। किन्तु योगाभ्यास की एक निश्चित ऊँचाई से मनुष्य जब गुजरता है तो उसे स्पष्ट दिखाई देता है कि पुनर्जन्म है? मैं क्या था? आगे कहाँ जाना है?
हृदय – शरीर में हृदय कहाँ है जिसमें परमात्मा का निवास है? हृदय का परिचय तथा परमात्मा को जानने की सम्पूर्ण विधि पर प्रकाश डाला गया है। क्रमोन्नत तीन शरीर हैं– स्थूल, सूक्ष्म और कारण। क्रमश: कारण शरीर के अन्तिम स्तर पर साधन पहुँचता है, तहाँ ईश्वर का निवास है। यह पुस्तिका इन्हीं प्रश्नों का पूर्ण परिचय देती है।
योगशास्त्रीय प्राणायाम में आपने बताया है कि यम, नियम और आसन के सधते ही श्वास-प्रश्वास का शान्त प्रवाहित होना ही प्राणायाम है। अलग से प्राणायाम नाम की कोई क्रिया नहीं है। यह योग चिन्तन की एक अवस्था है। इसी का समाधान इस पुस्तक में किया गया है।
अहिंसा एक उलझा हुआ प्रश्न है। मूलत: यह यौगिक, आन्तरिक साधना का शब्द है। किन्तु कालान्तर में लोगों ने इसे वाह्य जगत् की जीव-हिंसा से जोड़ दिया।...
इस पुस्तक में हम पायेंगे कि हमारे पूर्वज महापुरुषों ने अहिंसा को किस संदर्भ में लिया है। प्रस्तुत है - गीता के आलोक में ‘अहिंसा’, महाभारत के आलोक में ‘अहिंसा’, श्रीरामचरित मानस में ‘अहिंसा’, महावीर स्वामी की दृष्टि में ‘अहिंसा’ एवं भगवान बुद्ध की दृष्टि में ‘अहिंसा’।
संत कबीर की वाणी समझ में न आने पर भी उसका लगाव कम नहीं होता क्योंकि जिस सत्य का उन्होंने वर्णन किया है, वह अनुभव गम्य है, वह वाणी से समझाने में नहीं आता। अभ्यास के परिणाम में जब वह दृश्य स्पष्ट देखने में आ जाता है, तभी समझ में आता है। संत कबीर का कथन है- ‘‘हम कही आँखिन की देखी, तुम कहो कागज की लेखी। मोर तोर मनवा एकै कैसे होय।’’ अतः सबके लिए एक परमात्मा की शरण, एक नाम का जाप और अभ्यास अपेक्षित है।
भाग १ में पूज्य स्वामी श्री अड़गड़ानन्दजी महाराज के मुखारविन्द से नि:सृत अमृतवाणियों का संकलन किया गया है: नैहर दाग लगल मोरि चुनर, बलम राउर देशवा में चुनरी बिकाय, सदगुरु ज्ञान बदरिया बरस, शब्द सो प्रीति करै सोई पाव, अड़गड़ मत है पूरों का, बहुरि न अइहैं कोऊ शूरों के मैदान में, छाओ छाओ हो फकीर गगन में कुटा, तवन घर चेतिहे रे भाई!, का कहीं, केसे कहीं, सा्इं के संग सासुर आई एवं भजन किसका, कैसे और क्यों ।
भाग २ में पूज्य स्वामी श्री अड़गड़ानन्दजी महाराज के मुखारविन्द से नि:सृत अमृतवाणियों का संकलन किया गया है: सन्तो! जागत नींद न कीजै, मन मस्त हुआ तो क्यों डोले, पनघट पर गगरिया फूटल हो, बूझो बूझो पण्डित अमरित बानी, सन्तो! भगति सदगुरु आनी, नाव बिच नदिया डूबी जाय, पिया तोरी ऊँची रे अँटरिया, गयी झुलनी टूट, चुनर में दाग कहाँ से लागल एवं गाँठ पड़ी पिया बोले न हमसे ।
भाग ३ में पूज्य स्वामी श्री अड़गड़ानन्दजी महाराज के मुखारविन्द से नि:सृत अमृतवाणियों का संकलन किया गया है: न तसबीह काम आयेगी, अगर है शौक मिलने का, मय पीकर जे बउराइ गवा, दुनियाँ जिसे कहते हैं, तू दैरे हरम का मालिक है, चदरिया झीनी झीनी बीनी, करमाँरी रेखा न्यारी न्यारी, क्या नैना झमकावै एवं अवधू! ऐसा ज्ञान न देखा ।
भाग ४ में पूज्य स्वामी श्री अड़गड़ानन्दजी महाराज के मुखारविन्द से नि:सृत अमृतवाणियों का संकलन किया गया है: जाड़न मरो सारी रात, मोरे सैंया निकसि गये मैं ना लड़ी, गुरु ने पठाया चेला न्यामत लाना, तुम चलो दिवाने देस, पिवत नाम रस प्याला, संतो! यह मुरदों का गाँव, गइया एक बिरंचि दियो है एवं दरस दिवाना बावला ।
भाग ५ में पूज्य स्वामी श्री अड़गड़ानन्दजी महाराज के मुखारविन्द से नि:सृत अमृतवाणियों का संकलन किया गया है: सन्तो! सहज समाधि भली, घूँघट के पट खोल री, आलम है उदासी का, बन्दगी हो तो उस शान की बन्दगी, धोबिया जल बिच मरत पियासा, पानी बिच मीन पियासी एवं ससुरा से गवना उलटि चला रे नैहरवा ।
भाग ६ में पूज्य स्वामी श्री अड़गड़ानन्दजी महाराज के मुखारविन्द से नि:सृत अमृतवाणियों का संकलन किया गया है: रस गगन गुफा से अजर झरै, अब हम दोनों कुल उजियारी, अनेकों प्रश्न ऐसे हैं जो दुहराये नहीं जाते, तोड़ना टूटे हुए दिल को बुरा होता है, सिद्ध है सोइ अतीत कहावै, पायो जी मैंने नाम रतन धन पायो, राम कहत चलु भाई रे एवं सद्गुरु की हाट अलग लागी ।
भाग ७ में पूज्य स्वामी श्री अड़गड़ानन्दजी महाराज के मुखारविन्द से नि:सृत अमृतवाणियों का संकलन किया गया है: दरबार में सच्चे सद्गुरु के, सन्तो सतगुरु अलख लखाया, प्यास बुझावै बिन पानी, कोई अपने में देखा सा्इं संत अतीत, कबिरा कब से भया बैरागी, बिरहिनी मंदिर दियना बार, वा घर की कोई सुध न बतावे एवं चोलिया काहे न धुलाई ।
अपने पूज्य गुरु श्री परमानन्द जी महाराज को आकाशवाणी से प्राप्त भजन (ईश्वरीय गायन) बारहमासी का संकलन एवं उसकी व्याख्या की है। इसमें प्रवेशिका से लेकर पराकाष्ठा तक लक्ष्य की ओर बढ़ने का पथ-प्रदर्शन किया गया है।
मकर संक्रान्ति २०१६ के पावन पर्व पर तीर्थराज प्रयाग में कुछेक श्रद्धालुओं ने पूज्य महाराज जी से जिज्ञासा की कि भगवान और सद्गुरु के स्वरूप का विश्लेषण किया जाय! भक्तों की जिज्ञासा पर एतद्विषयक पूज्य महाराज जी के विचार प्रस्तुत हैं।
देवी पूजन की वास्तिविकता क्या है ? - श्री परमहंस आश्रम शक्तेषगढ़, मीरजापुर में पधारनेवाले भक्तों ने निवेदन किया कि गीता के अनुसार आप कहते हैं कि ब्रह्मा से लेकर यावन्मात्र जगत्, दिति–अदिति की संतानें देवी-देवता, दानव और मानव सभी क्षणभंगुर, दु:खों की खानि और जन्मने-मरने के स्वभाववाले हैं इसलिए भजन एक परमात्मा का ही करना चाहिए; फिर भारत में इतने सारे देवी-देवताओं की पूजा क्यों होती है? दूसरे ने कहा कि स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी भी काली की पूजा करते थे। किसी ने कहा– आजकल दुर्गा-पूजा का प्रचलन बढ़ रहा है, इसका माहात्म्य बताया जाय। भक्तों की जिज्ञासा पर जनवरी-फरवरी २०१५ के कतिपय दैनिक प्रवचनों से एतद्विषयक पूज्य महाराज जी के विचार प्रस्तुत हैं।
इस कृति में अनेक प्रश्नों का समाधान किया गया है जो सामाजिक बिखराव के उन्मूलन तथा धार्मिक भ्रान्तियों के निवारण में सहायक हैं। इसमें धर्म-सिद्धान्त एक, महायोगेश्वर श्रीकृष्ण, यज्ञ, कर्म, गीतोक्त वर्ण-व्यवस्था, वर्णसंकर, ज्ञानयोग एवं निष्काम कर्मयोग, गीतोक्त युद्धस्थल, गीतोक्त युद्ध, सनातन-धर्म (हिन्दू-धर्म), भगवान कर्ता हैं या अकर्ता ?, विप्र, देवता की स्पष्ट व्याख्या दी गई है।
इन प्रश्नों के साथ ही सदियों से चली आ रही अनेकानेक धार्मिक गुत्थियों का पहली बार समाधान प्रस्तुत करनेवाली श्रीमद्भगवद्गीता की यथावत् व्याख्या के लिए देखें – ‘यथार्थ गीता’।
त्र्यम्बकं यजामहे - दिनांक ०९/०५/२०२० ई० को पूज्य महाराज जी द्वारा पालघर से बरचर आश्रम पधारने के पश्चात् पालघर आश्रम के एक भक्त जी द्वारा महामृत्युंजय मंत्र ‘त्र्यम्बकं यजामहे....’, रुद्रीपाठ और रुद्राभिषेक के धार्मिक औचित्य की जिज्ञासा पर दिनांक २०/०५/२०२० को पूज्य महाराज जी द्वारा प्रस्तुत विचार।
एकलव्य का अंगूठा - इस पुस्तक में शिक्षा-गुरु और सद्गुरु में अन्तर बतलाया गया है। शिक्षक, लोकजीवन की कला सिखाते हैं जबकि सद्गुरु जीवन में समृद्धि के साथ परमश्रेय की जागृति और उस परम पद की प्राप्ति कराते हैं जिससे पुरुष आवागमन से मुक्त हो जाता है।
षोडशोपचार पूजन पद्धति षोडश संस्कार एवं हवन-पद्धति - इस पुस्तक में यह बताया गया है कि एक परमात्मा में श्रद्धा स्थिर कराकर, उस एक परमात्मा का चिन्तन सिखाना ही कर्मकाण्ड है।